Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
शुक्रवार, 4 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:33
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
गुरुवार, 3 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:32
🙏🙏
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।३२।।
ये -जो; तु -किन्तु; एतत -इस; अभ्यसूयंतः ईर्ष्यावश; न -नहीं; अनुतिष्ठन्ति -नियमित रूप से संपन्न करते हैं; में -मेरा; मतम -आदेश; सर्व -ज्ञान -सभी प्रकार के ज्ञान में;विमूढान -पूर्णतया दिग्भ्र्मित; तान -उन्हें; विद्धि -ठीक से जानो; नष्टान -नष्ट हुए; अचेतसः -कृष्णभावनामृत रहित।
किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की उपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित,दिग्भ्र्मित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट -भ्र्ष्ट समझना चाहिए।
तात्पर्य :-यहाँ पर कृष्णभावनाभावित न होने के दोष का स्पष्ट कथन है। जिस प्रकार परम अधिशासी की आज्ञा के उल्लंघन के लिए दण्ड होता है,उसी प्रकार भगवान् के आदेश के प्रति अवज्ञा के लिए भी दण्ड है। अवज्ञाकारी व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो वह शून्यह्रदय होने से आत्मा के प्रति तथा परब्रह्म,परमात्मा एवं श्रीभगवान के प्रति अनभिज्ञ रहता है। अतः ऐसे व्यक्ति से जीवन की सार्थकता की आशा नहीं की जा सकती।
क्रमशः!!!🙏🙏
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
बुधवार, 2 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:31
🙏🙏
ये में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोनसूयन्तो मुच्यन्ते तेपि कर्मभिः।।३१।।
ये -जो; में -मेरे; मतम -आदेशों को; इदम -इन; नित्यम -नित्य कार्य के रूप में; अनुतिष्ठन्ति -नियमित रूप से पालन करते हैं; मानवाः-मानव प्राणी; श्रद्धा-वन्तः -श्रद्धा तथा भक्ति समेत; अनसूयन्तः -बिना ईर्ष्या के; मुच्यन्ते -मुक्त हो जाते हैं; ते -वे; अपि -भी; कर्मभिः सकामकर्मों के नियमरूपी बन्धन से।
जो व्यक्ति मेरे आदर्शों के अनुसार अपना कर्तव्य करते रहते हैं और ईर्ष्या रहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
तत्पर्य :-श्री भगवान् कृष्ण का उपदेश समस्त वैदिक ज्ञान का सार है,अतः किसी अपवाद के बिना यह शाश्वत सत्य है। जिस प्रकार वेद शाश्वत हैं उसी प्रकार कृष्णभावनामृत का यह सत्य भी शाश्वत है। मनुष्य को चाहिए कि भगवान् से ईर्ष्या किये बिना इस आदेश में दृढ़ विश्वास रखे। ऐसे अनेक दार्शनिक हैं,जो भगवदगीता पर टीका रचते हैं,किन्तु कृष्ण में कोई श्रद्धा नहीं रखते। वे कभी सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकते। किन्तु एक सामान्य पुरुष भगवान् के इन आदेशों में दृढ़विश्वास करके कर्म -नियम के बन्धन से मुक्त हो जाता है, भले ही वह इन आदेशों का ठीक से पालन न कर पाए। कृष्णभावनामृत के प्रारम्भ में भले ही कृष्ण के आदेशों का पूर्णतया पालन न हो पाए,किन्तु चूँकि मनुष्य इस नियम से रुष्ट नहीं होता और पराजय तथा निराशा का विचार किये बिना निष्ठापूर्वक कार्य करता है,अतः वह विशुद्ध कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है।
क्रमशः !!!🙏🙏
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
मंगलवार, 1 जून 2021
BHAGAVAD GITA 3:30
🙏🙏
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याधातमच्चेतमा।
निराशीरनिंर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।३०।।
मयि-मुझमे; सर्वाणि -सब तरह से; कर्माणि -कर्मों को; सन्यस्थ -पूर्णतया त्याग करके; अध्यात्म -पूर्ण आत्मज्ञान से युक्त; चेतसा -चेतना से; निराशी -लाभ की आशा से रहित, निष्काम; निर्ममः -स्वामित्व की भावना से रहित, ममता त्यागी; भूत्वा -होकर; युध्यस्व -लड़ो; विगत -ज्वरः -आलस्यरहित।
अतः हे अर्जुन ! अपने सारे कार्यों को मुझमे समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर,लाभ की आकांक्षा से रहित, स्वामित्व के किसी दावे के बिना आलस्य से रहित होकर युद्ध करो।
तात्पर्य :-यह श्लोक भगवदगीता के प्रयोजन को स्पष्टतया इंगित करने वाला है। भगवान् की शिक्षा है कि स्वधर्म पालन के लिए सैन्य अनुशासन के सदृश्य पूर्णतया कृष्णभावनाभावित होना आवश्यक है। ऐसे आदेश से कुछ कठिनाइयां उपस्थित हो सकती हैं, फिर भी कृष्ण के आश्रित होकर स्वधर्म का पालन करना ही चाहिए,क्योंकि यह जीव की स्वाभाविक स्थिति है। जीव भगवान् के सहयोग के बिना सुखी नहीं हो सकता क्योंकि जीव की नित्य स्वाभाविक स्थिति ऐसी है कि भगवान् की इच्छाओं के अधीन रहा जाय। अतः श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने का इस तरह आदेश दिया मानो भगवान् उसके सेनानायक हों। परमेश्वर की इच्छा के लिए मनुष्य को सर्वस्व की बलि करनी होती है और साथ ही स्वामित्व जताये बिना स्वधर्म का पालन करना होता है। अर्जुन को भगवान् के आदेश का मात्र पालन करना था। परमेश्वर समस्त आत्माओं के आत्मा हैं, अतः जो पूर्णतया परमेश्वर पर आश्रित रहता है या दूसरे शब्दों में,जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है वह अध्यात्मचेतस कहलाता है। निराशीः का अर्थ है स्वामी के आदेशानुसार कार्य करना किन्तु फल की आशा न करना। कोषाध्यक्ष अपने स्वामी के लिए लाखों रूपये गिन सकता है,किन्तु इसमें से वह अपने लिए एक पैसा भी नहीं चाहता। इसी प्रकार मनुष्य को यह समझना चाहिए कि इस संसार में किसी व्यक्ति का कुछ भी नहीं है,सारी वस्तुएं परमेश्वर की हैं। मयि -अर्थात मुझमे वास्तविक तात्पर्य यही है। और जब मनुष्य इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में कार्य करता है तो वह किसी वस्तु पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं करता। यह भावनामृत निर्मम अर्थात "मेरा कुछ नहीं है " कहलाता है। यदि ऐसे कठोर आदेश को, जो शारीरिक सम्बन्ध में तथाकथित बंधुत्व भावना से रहित है, पूरा करने में कुछ झिझक हो तो उसे दूर कर देना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य विगतज्वर अर्थात ज्वर तथा आलस्य से रहित हो सकता है। अपने गुण तथा स्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को विशेष प्रकार का कार्य करना होता है और ऐसे कर्तब्यों का पालन कृष्णभावनाभावित होकर किया जा सकता है। इससे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा।
क्रमशः !!!🙏🙏
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
सोमवार, 31 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:29
🙏🙏
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृतस्रविदो मन्दांकृतसवित्र विचालयेत।।२९।।
प्रकृते -प्रकृति के; गुण-गुणों से; सम्मूढा -भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए; सज्जन्ते -लग जाते हैं; गुण -कर्मसु -भौतिक कार्यों में; तान -उन; अकृतस्त्र-विदः -अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दान -आत्म -साक्षात्कार समझने में आलसियों को; कृतस्र -वित् -ज्ञानी; न -नहीं; विचालयेत -विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमे आसक्त हो जाते हैं। यद्द्पि उनके ये कार्य उनमे ज्ञानाभाव के कारण अधम होते हैं,किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे।
तात्पर्य :-अज्ञानी पुरुष स्थूल भौतिक चेतना से और उपाधियों से पूर्ण रहते हैं। यह शरीर प्रकृति की देन है और जो व्यक्ति शारीरिक चेतना में अत्यधिक आसक्त होता है वह मन्द अर्थात आलसी कहा जाता है। अज्ञानी मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानते हैं,वे अन्यों के साथ शारीरिक सम्बन्ध को बंधुत्व मानते हैं , जिस देश में यह शरीर प्राप्त हुआ है उसे वे पूज्य मानते हैं और वे धार्मिक अनुष्ठानो की औपचारिकताओं को ही अपना लक्ष्य मानते हैं। ऐसे भौतिकताग्रस्त उपाधिधारी पुरुषों के कुछ प्रकार के कार्यों में सामाजिक सेवा,राष्ट्रीयता तथा परोपकार है। ऐसी उपाधियों के चक्कर में वे सदैव भौतिक क्षेत्र में व्यस्त रहते हैं,उनके लिए आध्यात्मिक बोध मिथ्या है, अतः वे रूचि नहीं लेते। किन्तु जो लोग आध्यात्मिक जीवन में जागरूक हैं, उन्हें चाहिए कि इस तरह भौतिकता में मग्न व्यक्तियों को विचलित न करें। अच्छा तो यही होगा कि वे शांतभाव से अपने आध्यात्मिक कार्यों को करें। ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति अहिंसा जैसे जीवन के मूलभूत नैतिक सिद्धांतो तथा इसी प्रकार कार्यों में लगे हो सकते हैं।
जो लोग अज्ञानी हैं वे कृष्णभावनामृत के कार्यों को समझ नहीं पाते,अतः भगवान् कृष्ण हमें उपदेश देते हैं कि ऐसे लोगों को विचलित न किया जाय और व्यर्थ ही मूल्यवान समय नष्ट न किया जाय। किन्तु भगवद्भक्त भगवान् से भी अधिक दयालु होते हैं, क्योंकि वे भगवान् के अभिप्राय को समझते हैं। फलतः वे सभी प्रकार के संकट झेलते हैं, यहाँ तक कि वे अज्ञानी पुरुषों के पास जा-जा कर उन्हें कृष्णभावनामृत के कार्यों में प्रवृत करने का प्रयास करते हैं,जो मानव के लिए परमावश्यक है।
क्रमशः !!!🙏🙏
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
शनिवार, 29 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:28
🙏🙏तत्ववितु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सञ्जते।।२८।।
तत्व-वित् -परम सत्य को जानने वाला; तु-लेकिन;महाबाहो -हे विशाल भुजाओं वाले; गुण -कर्म -भौतिक प्रभाव के अन्तर्गत कर्म के; विभागयोः -भेद के; गुणाः -इन्द्रियां; गुणेषु -इन्द्रियतृप्ति में; वर्तन्ते -तत्पर रहती हैं; इति इस प्रकार; मत्वा -मानकर; न -कभी नहीं;सञ्जते -आसक्त रहता है।
हे महाबाहो ! भक्तिभाव कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभांति जानते हुए जो परम सत्य को जानने वाला है,वह कभी भी अपने आप को इन्द्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता।
तात्पर्य :-परम सत्य को जानने वाला भौतिक संगति में अपनी विषम स्थिति को जानता है। वह जानता है कि वह भगवान् कृष्ण का अंश है और उसका स्थान इस भौतिक सृष्टि में नहीं होना चाहिए। वह अपने वास्तविक स्वरुप को भगवान् के अंश के रूप में जानता है जो सत चित आनंद है और उसे यह अनुभूति होती रहती है कि " मैं किसी कारण से देहात्मबुद्धि में फंस चुका हूँ। " अपने अस्तित्व की शुद्ध अवस्था में उसे सारे कार्य भगवान् कृष्ण की सेवा में नियोजित करने चाहिए। फलतः वह अपने आपको कृष्णभावनामृत के कार्यों में लगाता है और भौतिक इन्द्रियों के कार्यों के प्रति स्वभावतः अनासक्त हो जाता है क्यों कि ये परिस्थितिजन्य तथा अस्थायी है। वह जानता है कि उसके जीवन की भौतिक दशा भगवान् के नियंत्रण में हैं, फलतः वह सभी प्रकार के भौतिक बन्धनों से विचलित नहीं होता क्योंकि वह इन्हे भगवत्कृपा मानता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार जो व्यक्ति परम सत्य को ब्रह्म,परमात्मा तथा श्री भगवान् -इन तीनों विभिन्न रूपों में जानता है वह तत्ववित्त कहलाता है,क्योंकि वह परमेश्वर के साथ अपने वास्तविक सम्बन्ध के जानना।
क्रमशः !!! 🙏🙏
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
गुरुवार, 27 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:27
🙏🙏
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
प्रकृतेः-प्रकृति का; क्रियमाणानि -किये जाकर; गुणैः - गुणों के द्वारा; कर्माणि -कर्म; सर्वशः-सभी प्रकार के; अहङ्कार -विमूढ़ -अहंकार से मोहित; आत्मा -आत्मा; करता -करने वाला; अहम् -मैं हूँ; इति -इस प्रकार; मन्यते -सोचता है।
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा संपन्न किये जाते हैं।
तात्पर्य :-दो व्यक्ति जिनमे से एक कृष्णभावनाभावित है और दूसरा भौतिक चेतना वाला है,सामान स्तर पर कार्य करते हुए समान पद पर प्रतीत हो सकते हैं,किन्तु अनके पदों में आकाश -पाताल का अंतर रहता है। भौतिक चेतना वाला व्यक्ति अहंकार के कारण आश्वस्त रहता है कि वही सभी वस्तुओं का कर्ता है। वह यह नहीं जानता कि शरीर की रचना प्रकृति द्वारा हुई है, जो परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है। भौतिकवादी व्यक्ति यह नहीं जानता अंततोगत्वा कि वह कृष्ण के अधीन है। अहंकारवश ऐसा व्यक्ति हर कार्य को स्वतंत्र रूप से करने का श्रेय लेंना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण।
उसे यह ज्ञात नहीं है कि उसके इस स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की रचना प्रकृति द्वारा भगवान् की अध्यक्षता में की गयी है, अतः उसके सारे शारीरिक तथा मानसिक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर कृष्ण की सेवा में तत्पर होने चाहिए। अज्ञानी व्यक्ति यह भूल जाता है कि भगवान् हृषिकेश कहलाते हैं अर्थात वे शरीर के इन्द्रियों के स्वामी हैं। इन्द्रियतृप्ति के लिए इन्द्रियों का निरंतर उपयोग करते रहने से वह अहंकार के कारण वस्तुतः मोहग्रस्त रहता है, जिससे वह कृष्ण के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भूल जाता है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
सदस्यता लें
संदेश (Atom)