Bhagavad Gita is the life management book and self motivational book. many peoples change there life by reading this book, this is not a religious book anybody, any religion can read for better future. many peoples got success his business from this energetic book, I'm writing a shloka a day so if anybody don't have enough time to read so you can read a shloka a day, Thanks.
BHAGAVAD GITA IN HINDI
सोमवार, 10 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:16
I'm a husband, fathers of two kids, would like to help people anywhere and believe to spiritualty.
शनिवार, 8 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:15
🙏🙏
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम।
तस्मातसर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम।।१५।।
कर्म-कर्म; ब्रह्म -वेदों से; उद्भवम -उत्पन्न; विद्धि -जानो; ब्रह्म -वेद; अक्षर -परब्रह्म से; समुद्भवम-साक्षात प्रकट हुआ; तस्मात् -अतः; सर्व -गतम -सर्व व्यापी; ब्रह्म -ब्रह्म; नित्यम-शास्वत रूप से; यज्ञे -यज्ञ में; प्रतिष्ठम-स्थित।
वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये वेद साक्षात श्री भगवान् ( परब्रह्म ) से प्रकट हुए हैं। फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है।
तात्पर्य :-इन श्लोक में यज्ञार्थ-कर्म अर्थात कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए कर्म की आवश्यकता को भलीभांति विवेचित किया गया है। यदि हमें यह यज्ञ -पुरुष विष्णु के परितोष के लिए कर्म करना है तो हमें ब्रह्म या दिव्य वेदों से कर्म की दिशा प्राप्त करनी होगी। अतः सारे वेद कर्मादेशों की सहिंताएँ हैं। वेदों के निर्देश के बिना किया गया कोई भी कर्म विकर्म या अवैध अथवा पापपूर्ण कर्म कहलाता है। अतः कर्मफल से बचने के लिए सदैव वेदों से निर्देश प्राप्त करना चाहिए। जिस प्रकार सामान्य जीवन में राज्य के निर्देश के अंतर्गत कार्य करना होता है उसी प्रकार भगवान् के परम राज्य के निर्देशन में कार्य करना चाहिए। वेदों में ऐसे निर्देश भगवान् के श्वास से प्रत्यक्ष प्रकट होते हैं। कहा गया है -अस्य महतो भूतस्य निश्वसितम एतद यद्ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वांगिरसः " चारो वेद -ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद-भगवान् के श्वास से उद्भूत हैं।" (वृहदारण्यक उपनिषद ४.५. ११) ब्रह्मसंहिता से प्रमाणित होता है कि सर्वशक्तिमान होने के कारण भगवान् अपने श्वास के द्वारा बोल सकते हैं,अपनी प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा अन्य समस्त इन्द्रियों के कार्य संपन्न कर सकते हैं,दूसरे शब्दों में, भगवान् निःस्वास के द्वारा बोल सकते हैं और वे अपने नेत्रों से गर्भाधान कर सकते हैं। वस्तुतः यह कहा जाता है की उन्होंने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और समस्त जीवों को गर्भस्थ किया। इस तरह प्रकृति के गर्भ में बद्धजीवों प्रविष्ट करने के पश्चात उन्होंने उन्हें वैदिक ज्ञान के रूप में आदेश दिया,जिससे वे भगवद्धाम वापस जा सकें। हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृति में सारे बद्धजीव भौतिक भोग के लिए इच्छुक रहते हैं। किंतु वैदिक आदेश इस प्रकार बनाये गए हैं कि मनुष्य अपनी विकृत इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है और तथाकथित सुखभोग पूरा करके भगवान् के पास लौट सकता है। बद्धजीवों के लिए मुक्ति प्राप्त करने का सुनहरा अवसर होता है,अतः उन्हें चाहिए कि कृष्णभावनाभावित होकर यज्ञ -विधि का पालन करें। यहाँ तक कि जो वैदिक आदेशों का पालन नहीं करते वे भी कृष्णभावनामृत के सिद्धांतों को ग्रहण कर सकते हैं जिससे वैदिक यज्ञों या कर्मों की पुर्ति हो जाएगी। क्रमशः !!! 🙏🙏
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शुक्रवार, 7 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:14
🙏🙏
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः
यज्ञाद्भवति पर्जन्यों यज्ञः कर्मसमुद्भवः
अन्नात -अन्न से; भवन्ति -उत्पन्न होते हैं; भूतानि -भौतिक शरीर;पर्जन्यात -वर्षों से; अन्न -अन्न का; सम्भव -उत्पादन; यज्ञात -यज्ञ संपन्न करने से ; भवति -सम्भव होती है; पर्जन्यः -वर्षा; यज्ञः -यज्ञ का संपन्न होना: कर्म -नियत कर्तव्य से;समुद्भव -उत्पन्न होता है।
सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्तपन होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मो से उत्पन होता है।
तात्पर्य : भगवतगीता के महान टीकाकार श्रील बलदेव विद्याभूषण इस प्रकार लिखते है :-ये इन्द्राद्यङ्गतयावस्थितम यज्ञम सर्वेश्र्वरम विष्णुमभ्याचर्य तच्छेषमशनंति तेन तदेहयात्राम सम्पादयन्ति ते संतः सर्वेश्वरस्य भक्ताः सर्बकिलबिषैर ,अनादिकालविवरधैर आत्मानुभवप्रतिबन्धकैरनिखिलैः पापैर्विमुच्यते।
परमेश्वर,जो यज्ञपुरुष अथवा समस्त यज्ञों के भोक्ता कहलाते हैं, सभी देवताओं के स्वामी हैं और जिस प्रकार शरीर के अंग पूरे शरीर की सेवा करते हैं, उसी तरह सारे देवता उनकी सेवा करते हैं। इंद्र,चंद्र तथा वरुण जैसे देवता भगवान् द्वारा नियुक्त अधिकारी हैं,जो सांसारिक कार्यों की देखरेख करते हैं। सारे वेद इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञों का निर्देश करते हैं.जिससे वे अन्न उत्पादन के लिए प्रचुर वायु, प्रकाश तथा जल प्रदान करें। जब कृष्ण की पूजा की जाती है तो उनके अंगस्वरूप देवताओं की भी स्वतः पूजा हो जाती है , अतः देवताओं की अलग से पूजा करने की आवश्यकता नहीं होती। इसी हेतु कृष्णभावनाभावित भगवद्भक्त सर्प्रथम कृष्ण को भोजन अर्पित करते हैं और तब खाते हैं -यह ऐसी विधि है जिससे शरीर का आध्यात्मिक पोषण होता है। ऐसा करने से न केवल शरीर के विगत पापमय कर्मफल नष्ट होते हैं,अपितु शरीर प्रकृति के समस्त कल्मषों से निरापद हो जाता है। जब कोई छूत का रोग फैलता है तो इसके आक्रमण से बचने के लिए रोगाणुरोधी टीका लगाया जाता है। इसी प्रकार भगवान् विष्णु को अर्पित करके ग्रहण किया जाने वाला भोजन हमें भौतिक संदूषण से निरापद बनाता है और जो इस विधि का अभ्यस्त है वह भगवद्भक्त कहलाता है। अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति,जो केवल कृष्ण को अर्पित किया गया भोजन करता है, वह उन समस्त विगत भौतिक दूषणो के फलों का कामना करने में समर्थ होता है, जो आत्म -साक्षात्कार के मार्ग में बाधक बनते है। इसके विपरीत जो ऐसा नहीं करता वह अपने पापपूर्ण कर्म को बढ़ाता रहता है जिससे उसे सारे पापफलों को भोगने के लिए अगला शरीर कुकरों -सूकरों के समान मिलता है। यह भौतिक जगत नाना कल्मषों पूर्ण है और जो भी भगवान् के प्रसाद को ग्रहण करके उनसे निरापद हो लेता है वह उनके आक्रमण से बच जाता है,किन्तु जो ऐसा नहीं करता वह कल्मष का लक्ष्य बनता है।
अन्न अथवा शाक वास्तव में खाद्य हैं। मनुष्य विभिन्न प्रकार के अन्न,शाक फल आदि खाते हैं, जबकि पशु इन पदार्थों के उच्छिष्ट को खाते हैं। जो मनुष्य मांस खाने के अभ्यस्त हैं,उन्हें भी शाक के उत्पादन पर निर्भर रहना पड़ता है,क्योकि पशु शाक ही खाते हैं अतएव हमें अन्ततोगत्वा खेतों के उत्पादन पर ही आश्रित रहना है, बड़ी -बड़ी फैक्ट्रियों के उत्पादन पर नहीं। खेतों का यह उत्पादन आकाश से होने वाली प्रचुर वर्षा पर निर्भर करता है और ऐसी वर्षा इंद्र,सूर्य,चंद्र आदि देवताओं के द्वारा नियंत्रित होती है। ये देवता भगवान् के दास हैं। भगवान् को यज्ञों के द्वारा संतुष्ट रखा जा सकता है, अतः जो इन यज्ञों को संपन्न नहीं करता, उसे अभाव का सामना करना होगा -यही प्रकृति का नियम है। अतः भोजन के आभाव से बचने के लिए यज्ञ,और विशेष रूप से इस युग के लिए संस्तुत संकीर्तन यज्ञ, संपन्न करना चाहिए।
क्रमशः !!!🙏🙏
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गुरुवार, 6 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:13
🙏🙏
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात।।१३।।
यज्ञ-शिष्ट -यज्ञ संपन्न करने के बाद ग्रहण किये जाने वाले भोजन को; अशीनः - खाने वाले; संतः-भक्तगण; मुच्यन्ते-छुटकारा पाते हैं; सर्व -सभी तरह के; किल्बिषैः -पापों से; भुञ्जयते -भोगते हैं; ते -वे; तु-लेकिन; अघम-घोर पाप; पापाः -पापीजन; ये -जो; पचन्ति -भोजन बनाते हैं; आत्म-कारणात -इन्द्रियसुख के लिए।
भगवान् के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं,क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद ) को ही खाते हैं। अन्य लोग,जो अपने इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते हैं,वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं।
तात्पर्य :-भगवद्भक्तों या कृष्णभावनाभावित पुरुषों को सन्त कहा जाता है। वे सदैव भगवत्प्रेम में निमग्न रहते हैं,जैसा कि ब्रह्मसंहिता में (५,३८ ) कहा गया है - प्रेमानञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेंन संतः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। संतगण श्री भगवान् गोविन्द ( समस्त आनन्द के दाता ), या मुकुंद (मुक्ति के दाता ) या कृष्ण ( सबों को आकृष्ट करने वाले पुरुष ) के प्रगाढ़ प्रेम में मग्न रहने के कारण कोई भी वस्तु परम पुरुष को अर्पित किये बिना ग्रहण नहीं करते। फलतः ऐसे भक्त पृथक -पृथक भक्ति -साधनों के द्वारा, यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन आदि के द्वारा यज्ञ करते रहते हैं, जिससे वे संसार की सम्पूर्ण पापमयी संगति के कल्मष से दूर रहते हैं। अन्य लोग, जो अपने लिए या इन्द्रियतृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं वे न केवल चोर हैं, अपितु सभी प्रकार के पापों को खाने वाले हैं। जो व्यक्ति चोर तथा पापी दोनों हो, भला वह किस तरह सुखी रह सकता है ? यह सम्भव नहीं। अतः सभी प्रकार से सुखी रहने के लिए मनुष्यों को पूर्ण कृष्णभावनामृत में संकीर्तन -यज्ञ करने की सरल विधि बताई जानी चाहिए , अन्यथा संसार में शान्ति या सुख नहीं हो सकता।
क्रमशः !!!🙏🙏
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बुधवार, 5 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:12
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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्गे स्तेन एव सः।। १२।।
इष्टान-वांछित; भोगान -जीवन की आवश्यकताएं; हि -निश्चय ही; वः -तुम्हें; देवा -देवतागण; दास्यन्ते -प्रदान करेंगे; यज्ञ-भाविताः यज्ञ संपन्न करने से प्रसन्न होकर; तैः - उनके द्वारा; दत्तान-प्रदत्त वस्तुएं; अप्रदाय-बिना भेंट किये; एभ्यः - देवताओं को; यः-जो; भुङ्गे -भोग करता है; स्तेन -चोर; एव -निश्चय ही; सः -वह।
जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ संपन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। किन्तु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है, वह निश्चित रूप से चोर है।
तात्पर्य :-देवतागण भगवान् विष्णु द्वारा भोग -सामग्री प्रदान करने के लिए अधिकृत किये गए हैं। अतः नियत यज्ञों द्वारा उन्हें अवश्य संतुष्ट करना चाहिए। वेदों में विभिन्न देवताओं के लिए भिन्न -भिन्न प्रकार के यज्ञों की संस्तुति है , किन्तु वे सब अन्ततः भगवान् को ही अर्पित किये जाते हैं किन्तु जो यह नहीं समझ सकता कि भगवान् क्या है,उसके लिए देवयज्ञ विधान है। अनुष्ठानकर्त्ता भौतिक गुणों के अनुसार वेदों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान है। विभिन्न देवताओं की पूजा भी उसी आधार पर अर्थात गुणों के अनुसार की जाती है। उदाहरणार्थ, मांसाहारियों को देवी काली की पूजा करने के लिए कहा जाता है, जो भौतिक प्रकृति की घोर रूपा हैं और देवी के समक्ष पशुबलि का आदेश है। किन्तु जो सतोगुणी हैं, उनके लिए विष्णु की दिव्य पूजा बताई जाती है। अन्ततः समस्त यज्ञों का ध्येय उत्तरोत्तर दिव्य पद प्राप्त करना है। सामान्य व्यक्तियों के लिए कम से कम पांच यज्ञ आवश्यक हैं, जिन्हे पञ्चमहायज्ञ कहते हैं।
किन्तु मनुष्य को यह जानना चाहिए कि जीवन की सारी आवश्यकताएं भगवान् के देवता प्रतिनिधियों द्वारा ही पूरी की जाती है। कोई कुछ बना नहीं सकता। उदाहरणार्थ, मानव समाज के भोज्य पदार्थों को लें। इन भोज्य पदार्थों में शाकाहारियों के लिए अन्न,फल , शाक, दूध , चीनी , आदि हैं तथा मांसाहारियों के लिए मांसादि,जिनमे से कोई भी पदार्थ मनुष्य नहीं सकता। एक और उदहारण लें -यथा ऊष्मा प्रकाश, जल, वायु अदि जो जीवन के लिए आवश्यक है,इनमे से किसी को भी बनाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के बिना न तो प्रचुर प्रकाश मिल सकता है, न चांदनी, वर्षा, या प्रातःकालीन समीर ही,जिनके बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। स्पष्ट है कि हमारा जीवन भगवान् द्वारा प्रदत्त वस्तुओं पर आश्रित है। यहाँ तक कि हमें अपने उत्पादन-उद्द्मो के लिए अनेक कच्चे मालों की आवश्यकता होती है यथा धातु, गंधक , पारद ,मैंगनीज तथा अन्य अनेक आवश्यक वस्तुएं, जिनकी पूर्ति भगवान् के प्रतिनिधि इस उद्देश्य से करते हैं कि हम इनका समुचित उपयोग करके आत्म-साक्षात्कार के लिए अपने आपको स्वस्थ एवं पुष्ट बनायें,जिससे जीवन का चरम लक्ष्य अर्थात भौतिक जीवन -संघर्ष से मुक्ति प्राप्त हो सके। यज्ञ संपन्न करने से मानव जीवन का यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। यदि हम जीवन उद्देश्य को भूल कर भगवान् के प्रतिनिधियों से अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुएं लेते रहेंगे और इस संसार में अधिकाधिक फंसते जाएंगे, जो कि सृष्टि का उद्देश्य नहीं है तो निश्चय ही हम चोर हैं और इस तरह हम प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डित होंगे। चोरों का समाज कभी सुखी नहीं रह सकता क्योंकि उनका कोई जीवन लक्ष्य नहीं होता। उन्हें तो केवल इन्द्रियतृप्ति की चिंता रहती है, वे नहीं जानते कि यज्ञ किस तरह किये जाते हैं। किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने यज्ञ संपन्न करने की सरलतम विधि का प्रवर्तन किया। यह है कि संकीर्तन यज्ञ जो संसार के किसी भी व्यक्ति द्वारा, जो कृष्ण भावनामृत के सिद्धांतो को अंगीकार करता है,संपन्न किया जा सकता है। 🙏🙏
क्रमशः !!!
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मंगलवार, 4 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:11
🙏🙏
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।
देवान -देवताओं को; भावयता -प्रसन्न करके; अनेन -इस यज्ञ से; ते -वे; देवाः -देवता; भावयन्तु -प्रसन्न करेंगे; वः -तुमको; परस्परम-आपस में; भावयन्तः -एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए; श्रेयः -वर, मंगल; परम-परम; अवाप्स्यथ -तुम प्राप्त करोगे।
यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबों को सम्पन्नता प्राप्त होगी।
तात्पर्य :- देवतागण सांसारिक कार्यों के लिए अधिकारप्राप्त प्रशासक हैं। प्रत्येक जीव द्वारा शरीर धारण करने के लिए आवश्यक वायु,प्रकाश,जल तथा अन्य सारे वर उन देवताओं के अधिकार में हैं, जो भगवान् के शरीर के विभिन्न भागों में असंख्य सहायकों के रूप में स्थित है। उनकी प्रसन्नता तथा अप्रसन्नता मनुष्यो द्वारा यज्ञ की सम्पन्नता पर निर्भर है। कुछ यज्ञ किन्हीं विशेष देवताओं को प्रसन्न करने के लिए होते हैं,किन्तु तो भी सारे यज्ञों में भगवान् विष्णु को प्रमुख भोक्ता की भांति पूजा जाता है। भगवदगीता में यह भी कहा गया है कि भगवान् कृष्ण स्वयं सभी प्रकार के यज्ञों के भोक्ता हैं-भोक्तारं यज्ञतपसाम।अतः समस्त यज्ञों का मुख्य प्रयोजन यज्ञपति को प्रसन्न करना है। जब ये यज्ञ सुचारु रूप से सम्पन्न किये जाते हैं, तो विभिन्न विभागों के अधिकारी देवता प्रसन्न होते हैं और प्राकृतिक पदार्थों का आभाव नहीं रहता।
यज्ञों को संपन्न करने से अन्य लाभ होते हैं,जिनसे अन्ततः भवबन्धन से मुक्ति मिल जाती है। यज्ञ से सारे कर्म पवित्र हो जाते हैं, जैसा कि वेदवचन है - आहारशुद्धौ सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रंन्थीनां विप्रमोक्षः। यज्ञ से मनुष्य के खाद्यपदार्थ शुद्ध होते हैं और शुद्ध भोजन करने से मनुष्य जीवन शुद्ध हो जाता है,जीवन शुद्ध होने से स्मृति के सूक्ष्म -तन्तु शुद्ध होते हैं और स्मृति -तन्तुओं के शुद्ध होने पर मनुष्य मुक्तिमार्ग का चिन्तन कर सकता है और ये सब मिलकर कृष्णभावनामृत तक पहुँचाते हैं, जो आज के समाज के लिए सर्वाधिक आवश्यक है।
क्रमशः!!!-🙏🙏
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सोमवार, 3 मई 2021
BHAGAVAD GITA 3:10
🙏🙏
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोस्त्विष्टकामधुक।।१०।।
सह-के साथ; यज्ञाः-यज्ञों; -प्रजाः संततियों; सृष्ट्वा -रच कर; पुरा-प्राचीन काल में; उवाच-कहा; प्रजा-पतिः जीवों के स्वामी ने; अनेन -इससे; परसविष्यध्वम -अधिकाधिक समृद्ध होओ; एषः -यह; वः -तुम्हारा; अस्तु -होए; इष्ट -समस्त वांछित वस्तुओं का; काम-धुक-प्रदाता।
सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी (प्रजापति ) ने विष्णु के लिए यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं की संततियों को रचा और उनसे कहा, "तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुम्हें सुखपूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त हो सकेंगी। "
तात्पर्य :-प्राणियों के स्वामी (विष्णु ) द्वारा भौतिक सृष्टि की रचना बद्धजीवों के लिए भगवद्धाम वापस जाने का सुअवसर है। इस सृष्टि के सारे जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हैं क्योंकि उन्होंने श्री भगवान् विष्णु या कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को भुला दिया है। इस शाश्वत सम्बन्ध को समझने में वैदिक नियम हमारी सहायता के लिए हैं, जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है -वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्य: भगवान् का कथन है कि वेदों का उद्देश्य मुझे समझना है। वैदिक स्तुतियों में कहा गया है -पतिं विश्र्वस्यतमेश्र्वरम। अतः जीवों के स्वामी (प्रजापति ) श्री भगवान् विष्णु हैं। श्रीमदभागवत में भी ( २. ४. २० ) श्रील शुकदेव गोस्वामी ने भगवान् को अनेक रूपों में पति कहा है-
श्रियः पतिर्यज्ञपतिःप्रजापतिर्धियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः।
पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णिसात्वतां प्रसीदतां में भगवान् सतां पतिः।।
प्रजापति तो भगवान् विष्णु हैं और वे समस्त प्राणियों के,समस्त लोकों के तथा सुंदरता के (पति ) हैं और हर एक के त्राता हैं। भगवान् ने भौतिक जगत को इसलिए रचा कि बद्धजीव यह सीख सकें कि वे विष्णु को प्रसन्न करने के लिए किस प्रकार यज्ञ करें जिससे वे इस जगत में चिंतारहित होकर सुखपूर्वक रह सकें तथा इस भौतिक देह का अंत होने पर भगवद्धाम को जा सके। बद्धजीव के लिए ही यह सम्पूर्ण कार्यक्रम है। यज्ञ करने से बद्धजीव क्रमशः कृष्णभावनाभावित होते हैं और सभी प्रकार से देवतुल्य बनते हैं। कलियुग में वैदिक शास्त्रों ने संकीर्तन यज्ञ ( भगवान् के नामों का कीर्तन ) का विधान किया है और इस दिव्य विधि का प्रवर्तन चैतन्य महाप्रभु द्वारा इस युग समस्त लोगों के उद्धार के लिए किया गया। संकीर्तन-यज्ञ के विशेष प्रसंग में, भगवान् कृष्ण का अपने भक्त रूप (चैतन्य महाप्रभु रूप ) में निम्न प्रकार से उल्लेख हुआ है -
कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं संगोपाङ्गास्त्रपार्षदम।
यज्ञैः सङ्गकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।।
"इस कलियुग में जो लोग पर्याप्त बुद्धिमान हैं वे भगवान् की उनके पार्षदों सहित संकीर्तन-यज्ञ द्वारा पूजा करेंगे। "वेदों में वर्णित अन्य यज्ञों को कलिकाल में कर पाना सहज नहीं,किन्तु संकीर्तन-यज्ञ सुगम है और सभी दृष्टि से अलौकिक है,जैसा कि भगवदगीता में भी ( ९. १४ ) संस्तुति की गयी है।
क्रमशः :-!!! 🙏🙏
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