गुरुवार, 6 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:13

 🙏🙏

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। 

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात।।१३।।

यज्ञ-शिष्ट -यज्ञ संपन्न करने के बाद ग्रहण किये जाने वाले भोजन को; अशीनः - खाने वाले; संतः-भक्तगण; मुच्यन्ते-छुटकारा पाते हैं; सर्व -सभी तरह के; किल्बिषैः -पापों से; भुञ्जयते -भोगते हैं; ते -वे; तु-लेकिन; अघम-घोर पाप; पापाः -पापीजन; ये -जो; पचन्ति -भोजन बनाते हैं; आत्म-कारणात -इन्द्रियसुख के लिए। 

भगवान् के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं,क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद ) को ही खाते हैं। अन्य लोग,जो अपने इन्द्रियसुख  के लिए भोजन बनाते हैं,वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं।

तात्पर्य :-भगवद्भक्तों या कृष्णभावनाभावित पुरुषों को सन्त कहा जाता है। वे सदैव भगवत्प्रेम में निमग्न रहते हैं,जैसा कि ब्रह्मसंहिता में (५,३८ ) कहा गया है - प्रेमानञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेंन  संतः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। संतगण  श्री भगवान् गोविन्द ( समस्त आनन्द के दाता ), या मुकुंद (मुक्ति के दाता ) या कृष्ण ( सबों को आकृष्ट करने वाले पुरुष ) के प्रगाढ़ प्रेम में मग्न रहने के कारण कोई भी वस्तु परम पुरुष को अर्पित किये बिना ग्रहण नहीं करते। फलतः ऐसे भक्त पृथक -पृथक भक्ति -साधनों के द्वारा, यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन आदि के द्वारा यज्ञ करते रहते हैं, जिससे वे संसार की सम्पूर्ण पापमयी संगति के कल्मष से दूर रहते हैं। अन्य लोग, जो अपने लिए या इन्द्रियतृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं वे न केवल चोर हैं, अपितु सभी प्रकार के पापों को खाने वाले हैं। जो व्यक्ति चोर तथा पापी दोनों हो, भला वह किस तरह सुखी रह सकता है ? यह सम्भव नहीं।  अतः सभी प्रकार से सुखी रहने के लिए मनुष्यों को पूर्ण कृष्णभावनामृत में संकीर्तन -यज्ञ करने की सरल विधि बताई जानी चाहिए , अन्यथा संसार में शान्ति या सुख नहीं हो सकता। 

क्रमशः !!!🙏🙏

बुधवार, 5 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:12

🙏🙏 

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। 

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्गे स्तेन एव सः।। १२।। 

इष्टान-वांछित; भोगान -जीवन की आवश्यकताएं; हि -निश्चय ही; वः -तुम्हें; देवा -देवतागण; दास्यन्ते -प्रदान करेंगे; यज्ञ-भाविताः यज्ञ संपन्न करने से प्रसन्न होकर; तैः -  उनके द्वारा; दत्तान-प्रदत्त वस्तुएं; अप्रदाय-बिना भेंट किये; एभ्यः - देवताओं को; यः-जो; भुङ्गे -भोग करता है; स्तेन -चोर; एव -निश्चय ही; सः -वह।

जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ संपन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। किन्तु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है, वह निश्चित रूप से चोर है। 

तात्पर्य :-देवतागण भगवान् विष्णु द्वारा भोग -सामग्री प्रदान करने के लिए अधिकृत किये गए हैं। अतः नियत यज्ञों द्वारा उन्हें अवश्य संतुष्ट करना चाहिए। वेदों में विभिन्न देवताओं के लिए भिन्न -भिन्न प्रकार के  यज्ञों की संस्तुति है , किन्तु वे सब अन्ततः भगवान् को ही अर्पित किये जाते हैं किन्तु जो यह नहीं समझ सकता कि भगवान् क्या है,उसके लिए देवयज्ञ विधान है। अनुष्ठानकर्त्ता  भौतिक गुणों के अनुसार वेदों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान है। विभिन्न देवताओं की पूजा भी उसी आधार पर अर्थात गुणों के अनुसार की जाती है। उदाहरणार्थ, मांसाहारियों को देवी काली की पूजा करने के लिए कहा जाता है, जो भौतिक प्रकृति की घोर रूपा हैं और देवी के समक्ष पशुबलि का आदेश है। किन्तु जो सतोगुणी हैं, उनके लिए विष्णु की दिव्य पूजा बताई जाती है। अन्ततः समस्त यज्ञों का ध्येय उत्तरोत्तर दिव्य पद प्राप्त करना है। सामान्य व्यक्तियों के लिए कम से कम पांच यज्ञ आवश्यक हैं, जिन्हे पञ्चमहायज्ञ कहते हैं। 

किन्तु मनुष्य को यह जानना चाहिए कि जीवन की सारी आवश्यकताएं भगवान् के देवता प्रतिनिधियों द्वारा ही पूरी की जाती है। कोई कुछ बना नहीं सकता। उदाहरणार्थ, मानव समाज के भोज्य पदार्थों को लें। इन भोज्य पदार्थों में शाकाहारियों के लिए अन्न,फल , शाक, दूध , चीनी , आदि हैं तथा मांसाहारियों के लिए मांसादि,जिनमे से कोई भी पदार्थ मनुष्य नहीं  सकता। एक और उदहारण लें -यथा ऊष्मा प्रकाश, जल, वायु अदि जो जीवन के लिए आवश्यक है,इनमे से किसी को भी बनाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के बिना न तो प्रचुर प्रकाश मिल सकता है, न चांदनी, वर्षा, या प्रातःकालीन समीर ही,जिनके बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। स्पष्ट है कि हमारा जीवन भगवान् द्वारा प्रदत्त वस्तुओं पर आश्रित है। यहाँ तक कि हमें अपने उत्पादन-उद्द्मो के लिए अनेक कच्चे मालों की आवश्यकता होती है यथा धातु, गंधक , पारद ,मैंगनीज तथा अन्य अनेक आवश्यक वस्तुएं, जिनकी पूर्ति भगवान् के प्रतिनिधि इस उद्देश्य से करते हैं कि हम इनका समुचित उपयोग करके आत्म-साक्षात्कार के लिए अपने आपको स्वस्थ एवं पुष्ट बनायें,जिससे जीवन का चरम लक्ष्य अर्थात भौतिक जीवन -संघर्ष से मुक्ति प्राप्त हो सके। यज्ञ संपन्न करने से मानव जीवन का यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। यदि हम जीवन उद्देश्य को भूल कर भगवान् के प्रतिनिधियों से अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुएं लेते रहेंगे और इस संसार में अधिकाधिक फंसते जाएंगे, जो कि सृष्टि का उद्देश्य नहीं है तो निश्चय ही हम चोर हैं और इस तरह हम प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डित होंगे। चोरों का समाज कभी सुखी नहीं रह सकता क्योंकि उनका कोई जीवन लक्ष्य नहीं होता। उन्हें तो केवल इन्द्रियतृप्ति की चिंता रहती है, वे नहीं जानते कि यज्ञ किस तरह किये जाते हैं। किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने यज्ञ संपन्न करने की सरलतम विधि का प्रवर्तन किया। यह है कि संकीर्तन यज्ञ जो संसार के किसी भी व्यक्ति द्वारा, जो कृष्ण भावनामृत के सिद्धांतो को अंगीकार करता है,संपन्न किया जा सकता है। 🙏🙏

क्रमशः !!! 

      

  

मंगलवार, 4 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:11

🙏🙏

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। 

       परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।११।।

देवान -देवताओं को; भावयता -प्रसन्न करके; अनेन -इस यज्ञ से; ते -वे; देवाः -देवता; भावयन्तु -प्रसन्न करेंगे; वः -तुमको; परस्परम-आपस में; भावयन्तः -एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए; श्रेयः -वर, मंगल; परम-परम; अवाप्स्यथ -तुम प्राप्त करोगे। 

यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबों को सम्पन्नता प्राप्त होगी। 

तात्पर्य :-  देवतागण सांसारिक कार्यों के लिए अधिकारप्राप्त प्रशासक हैं। प्रत्येक जीव द्वारा शरीर धारण करने के लिए आवश्यक वायु,प्रकाश,जल तथा अन्य सारे वर उन देवताओं के अधिकार में हैं, जो भगवान् के शरीर के विभिन्न भागों में असंख्य सहायकों के रूप में स्थित है। उनकी प्रसन्नता तथा अप्रसन्नता मनुष्यो द्वारा यज्ञ की सम्पन्नता पर निर्भर है। कुछ यज्ञ किन्हीं विशेष देवताओं को प्रसन्न करने के लिए होते हैं,किन्तु तो भी सारे यज्ञों में भगवान् विष्णु को प्रमुख भोक्ता की भांति पूजा जाता है। भगवदगीता में यह भी कहा गया है कि भगवान् कृष्ण स्वयं सभी प्रकार के यज्ञों के भोक्ता हैं-भोक्तारं यज्ञतपसाम।अतः समस्त यज्ञों का मुख्य प्रयोजन यज्ञपति को प्रसन्न करना है। जब ये यज्ञ सुचारु रूप से सम्पन्न किये जाते हैं, तो विभिन्न विभागों के अधिकारी देवता प्रसन्न होते हैं और प्राकृतिक पदार्थों का आभाव  नहीं रहता। 

यज्ञों को संपन्न करने से अन्य लाभ होते हैं,जिनसे अन्ततः भवबन्धन से मुक्ति मिल जाती है। यज्ञ से सारे कर्म पवित्र हो जाते हैं, जैसा कि वेदवचन है -   आहारशुद्धौ सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रंन्थीनां विप्रमोक्षः।  यज्ञ से मनुष्य के खाद्यपदार्थ शुद्ध होते हैं और शुद्ध भोजन करने से मनुष्य जीवन शुद्ध हो जाता है,जीवन शुद्ध होने से स्मृति के सूक्ष्म -तन्तु शुद्ध होते हैं और स्मृति -तन्तुओं के शुद्ध होने पर मनुष्य मुक्तिमार्ग का चिन्तन कर सकता है और ये सब मिलकर कृष्णभावनामृत तक पहुँचाते हैं, जो आज के समाज के लिए सर्वाधिक आवश्यक है।

  क्रमशः!!!-🙏🙏

सोमवार, 3 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:10

 🙏🙏

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। 

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोस्त्विष्टकामधुक।।१०।।

  सह-के साथ; यज्ञाः-यज्ञों; -प्रजाः संततियों; सृष्ट्वा -रच कर; पुरा-प्राचीन काल में; उवाच-कहा; प्रजा-पतिः जीवों के स्वामी ने; अनेन -इससे; परसविष्यध्वम -अधिकाधिक समृद्ध होओ; एषः -यह; वः -तुम्हारा; अस्तु -होए; इष्ट -समस्त वांछित वस्तुओं का; काम-धुक-प्रदाता। 

सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी (प्रजापति ) ने विष्णु के लिए यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं की संततियों को रचा और उनसे कहा, "तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुम्हें सुखपूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त हो सकेंगी। "

तात्पर्य :-प्राणियों के स्वामी (विष्णु ) द्वारा भौतिक सृष्टि की रचना बद्धजीवों के लिए भगवद्धाम वापस जाने का सुअवसर है। इस सृष्टि के सारे जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हैं क्योंकि उन्होंने श्री भगवान् विष्णु या कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को भुला दिया है। इस शाश्वत सम्बन्ध को समझने में वैदिक नियम हमारी सहायता के लिए हैं, जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है -वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्य:  भगवान् का कथन है  कि वेदों का उद्देश्य मुझे समझना है। वैदिक स्तुतियों में कहा गया है -पतिं विश्र्वस्यतमेश्र्वरम।  अतः जीवों के स्वामी (प्रजापति ) श्री भगवान् विष्णु हैं। श्रीमदभागवत में भी ( २. ४. २० ) श्रील शुकदेव गोस्वामी ने भगवान् को अनेक रूपों में पति  कहा है-

श्रियः पतिर्यज्ञपतिःप्रजापतिर्धियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः। 

       पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णिसात्वतां प्रसीदतां में भगवान् सतां पतिः।। 

प्रजापति  तो भगवान् विष्णु हैं और वे समस्त प्राणियों के,समस्त लोकों के तथा सुंदरता के (पति ) हैं और हर एक के त्राता हैं। भगवान् ने  भौतिक जगत को इसलिए रचा कि बद्धजीव यह सीख सकें कि वे विष्णु को प्रसन्न करने के लिए किस प्रकार यज्ञ करें जिससे वे इस जगत में चिंतारहित होकर सुखपूर्वक रह सकें तथा इस भौतिक देह का अंत होने पर भगवद्धाम को जा सके। बद्धजीव के लिए ही यह सम्पूर्ण कार्यक्रम है। यज्ञ करने से बद्धजीव क्रमशः कृष्णभावनाभावित होते हैं और सभी प्रकार से देवतुल्य बनते हैं। कलियुग में वैदिक शास्त्रों ने संकीर्तन यज्ञ ( भगवान् के नामों का कीर्तन ) का विधान किया है और इस दिव्य विधि का प्रवर्तन चैतन्य महाप्रभु द्वारा इस युग  समस्त लोगों के उद्धार के लिए किया गया। संकीर्तन-यज्ञ के विशेष प्रसंग में, भगवान् कृष्ण का अपने भक्त रूप (चैतन्य महाप्रभु रूप ) में निम्न प्रकार से उल्लेख हुआ है -

कृष्णवर्ण त्विषाकृष्णं संगोपाङ्गास्त्रपार्षदम। 

यज्ञैः सङ्गकीर्तनप्रायैर्यजन्ति   हि  सुमेधसः।।

"इस  कलियुग में जो लोग पर्याप्त बुद्धिमान हैं वे भगवान् की उनके पार्षदों सहित संकीर्तन-यज्ञ द्वारा पूजा करेंगे। "वेदों में वर्णित अन्य यज्ञों को  कलिकाल में कर पाना सहज नहीं,किन्तु संकीर्तन-यज्ञ सुगम है और सभी दृष्टि से अलौकिक है,जैसा कि भगवदगीता में भी ( ९. १४ ) संस्तुति की गयी है।

क्रमशः :-!!! 🙏🙏 

                                               

  

रविवार, 2 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:9

 🙏🙏 

यज्ञार्थात्कर्मणोन्यत्र लोकोयं कर्मबन्धनः 

      तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।९।।

यज्ञ-अर्थात -एकमात्र यज्ञ या विष्णु के लिए किया गया; कर्मणः -कर्म की अपेक्षा;अन्यत्र -अन्यथा; लोकः -संसार; अयम -यह; कर्म-बन्धनः -कर्म के कारण बन्धन; तत-उस; अर्थम्-के लिए; कर्म-कर्म; कौन्तेय-हे कुन्तीपुत्र; मुक्त-सङ्गः -सङ्ग; ( फलाकांक्षा ) से मुक्त्त; समाचर -भलीभांति आचरण करो। 

श्री विष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए,अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत में बन्धन उत्पन्न होता है। अतः हे कुन्तीपुत्र ! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो। इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे। 

तात्पर्य :-चूँकि मनुष्य को शरीर के निर्वाह के लिए कर्म करना होता है,अतः विशिष्ट सामजिक स्थिति तथा गुण को ध्यान में रखकर नियत कर्म इस तरह बनाये गए हैं कि उस उद्देश्य की पूर्ति हो सके। यज्ञ का अर्थ भगवान विष्णु हैं। सारे यज्ञ भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए हैं। वेदों का आदेश है -यज्ञो वै विष्णुः।दूसरे शब्दों में,चाहे कोई निर्दिष्ट यज्ञ संपन्न करे या प्रत्यक्ष रूप से भगवान् विष्णु की सेवा करे,दोनों से एक ही प्र्योजन सिद्ध होता है, अतः जैसा कि इस श्लोक में संस्तुत किया गया है, कृष्णभावनामृत यज्ञ ही है। वर्णाश्रम धर्म का भी उद्देश्य भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना है। वर्णाश्रममाचारवता पुरुषेण परः पुमान। विष्णुराराध्यते ( विष्णु पुराण ३.८. ८ ) | 

अतः भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिए कर्म करना चाहिए। इस जगत में किया जाने वाला अन्य कोई कर्म बंधन का कारण होगा,क्योंकि अच्छे तथा बुरे कर्मों के फल होते हैं और कोई भी फल कर्म के करने वाले को बांध लेता है। अतः कृष्ण ( विष्णु ) को प्रसन्न करने के लिए कृष्णभावनाभावित होना होगा और जब कोई ऐसा कर्म करता है तो वह मुक्त दशा को प्राप्त रहता है। यही महान कर्म कौशल है और प्रारम्भ में इस विधि में अत्यंत कुशल मार्ग दर्शन की आवश्यकता होती है। अतः भगवद्भक्त के निर्देशन में या साक्षात भगवान् कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अंतर्गत (जिनके अधीन अर्जुन को कर्म करने का अवसर मिला था ) मनुष्य को परिश्रमपूर्वक कर्म करना चाहिए। इन्द्रियतृप्ति के लिए कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए,अपितु हर कार्य कृष्ण की प्रसन्नता ( तुष्टि ) के लिए होना चाहिए। इस विधि से न केवल कर्म के बंधन से बचा जा सकता है,अपितु इससे मनुष्य को क्रमशः भगवान् की वह प्रेमाभक्ति प्राप्त हो सकेगी, जो भगवद्धाम को ले जाने वाली है।

क्रमशः !!!🙏🙏  







   

शनिवार, 1 मई 2021

BHAGAVAD GITA 3:8

🙏🙏

 नियतं कुरु त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। 

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।८।।

नियतम -नियत; कुरु -करो; कर्म -कर्तव्य; त्वम -तुम; कर्म -कर्म करना; ज्याय -श्रेष्ठ; हि -निश्चय ही; अकर्मण -काम करने की अपेक्षा; शरीर -शरीर का; यात्रा -पालन,निर्वाह; अपि -भी; च -भी; ते -तुम्हारा; न -कभी नहीं; प्रसिद्ध्येत -सिद्ध होता है; अकर्मणः -बिना काम के। 

अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर -निर्वाह भी नहीं हो सकता। 

तात्पर्य :-ऐसे अनेक छद्म ध्यानी हैं, जो अपने आपको उच्चकुलीन बताते हैं तथा ऐसे बड़े-बड़े व्यवसायी ब्यक्ति हैं,जो झूठा दिखावा करते हैं कि आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है। श्रीकृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन मिथ्याचारी बने,अपितु वे चाहते थे कि अर्जुन क्षत्रियों  के  लिए निर्दिष्ट धर्म का पालन करे। अर्जुन गृहस्थ था  और सेनानायक था, अतः उसके लिए श्रेयस्कर था कि वह उसी रूप में गृहस्थ क्षत्रिय के लिए निर्दिष्ट धार्मिक कर्तव्यों का पालन करें। ऐसे कार्यों से संसारी मनुष्य का ह्रदय क्रमशः विमल हो जाता है और वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। देह निर्वाह के लिए किये गए तथाकथित त्याग (सन्यास ) का अनुमोदन न तो भगवान् करते हैं और न कोई धर्मशास्त्र ही। आखिर देह -निर्वाह के लिए कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकवादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिए अर्थात इन्द्रियतृप्ति के लिए मलिन प्रवृति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृतियों को  शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिए कि तथाकथित अध्यात्मवादी   (योगी ) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर  रहने का प्रयास न करें। 

क्रमशः!!! 🙏🙏

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

BHAGAVAD GITA 3:7

 🙏🙏

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेर्जुनः। 

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।७।।

यः-जो; तु -लेकिन; इन्द्रियाणि -इन्द्रियों को; मनसा-मन के द्वारा; नियम्य -वश में करके; आरभते -प्रारम्भ करता है; अर्जुन -हे अर्जुन; कर्म-इन्द्रियैः -कर्मेन्द्रियों से; कर्म-योगम -भक्ति; असक्त -अनासक्त; सः-वह; विशिष्यते -श्रेष्ठ है। 

दूसरी ओर यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और विना किसी आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत में ) प्रारम्भ करता है,तो वह अति उत्कृष्ट है। 

तात्पर्य :-लम्पट जीवन और इन्द्रियसुख के लिए छद्म योगी का मिथ्या वेश धारण करने की अपेक्षा अपने कर्म में लगे रहकर जीवन लक्ष्य को,जो भवबन्धन से मुक्त होकर भगवद्धाम को जाना है,प्राप्त करने के लिए कर्म करते रहना अधिक श्रेयस्कर है। प्रमुख स्वार्थ -गति तो विष्णु के पास जाना है। सम्पूर्ण वर्णाश्रम -धर्म का उद्देश्य इसी जीवन का लक्ष्य की प्राप्ति है। एक गृहस्थ भी कृष्णभावनामृत में नियमित सेवा करके इस  लक्ष्य तक पहुंच सकता है। आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है। जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है वह उस पाखंडी धूर्त से कहीं श्रेष्ठ है जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लये ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाडू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।🙏🙏

क्रमशः !!!