शुक्रवार, 5 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:32

 🙏

यदृच्छया चोपपन्नम स्वर्गद्वारमपावृतम। 

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम।।३२।।

🙏

यदृच्छया -अपने आप; च -भी; उप्पन्नम -प्राप्त हुए;स्वर्ग -स्वर्गलोक का; द्वारम-दरवाजा; अपावृतम -खुला हुआ; सुखिनः-अत्यंत सुखी; क्षत्रियाः- राजपरिवार के सदस्य;पार्थ -हे पृथापुत्र; लभन्ते -प्राप्त करते हैं; युद्धम -युद्ध को; ईदृशम-इस तरह। 

हे पार्थ ! वे क्षत्रिय सुखी हैं,जिन्हे ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं। 

तात्पर्य :- विश्व के परम गुरु भगवान् कृष्ण अर्जुन की इस प्रवृति की भर्त्सना करते हैं जब वह कहता है कि उसे इस युद्ध में कुछ भी तो लाभ नहीं दिख रहा है। इससे नरक में शाश्वत वास करना होगा। अर्जुन द्वारा ऐसे वक्तव्य केवल अज्ञानजन्य थे। वह अपने स्वधर्म के आचरण में अहिंसक बनना चाह रहा था,किन्तु एक क्षत्रिय के लिए युद्धभूमि में स्थित होकर इस प्रकार अहिंसक बनना मूर्खों का दर्शन है। पराशर -स्मृति में व्यासदेव के पिता पराशर ने कहा -

क्षत्रियो हि प्रजारक्षण शस्त्रपाणिः परदण्डयन। 

निर्जित्य परसैन्यादि क्षिति धर्मेण पालयेत।।  

"क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे। इसलिए उसे शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है। अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए। "

यदि सभी पक्षों पर  विचार करें  अर्जुन को युद्ध  विमुख होने का कोई कारण नहीं था। यदि वह शत्रुओं को जीतता है तो राज्यभोग करेगा और यदि वह युद्धभूमि में मरता है तो स्वर्ग को जाएगा जिसके द्वार उसके लिए खुले हुए हैं। युद्ध करने से उसे दोनों ही तरह लाभ होगा। 

क्रमशः!!!  





गुरुवार, 4 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:31

 🙏

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। 

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयो न्यतक्षत्रियस्य न विद्दते।।३१।।

🙏

स्व -धर्मम-अपने धर्म को; अपि-भी,च-निस्संदेह; अवेक्ष्य -विचार करके; न -कभी नहीं; विकम्पितुम-संकोच  के लिए; अर्हसि -तुम योग्य हो; धर्म्यात -धर्म के लिए; हि-निस्सन्देह; युद्धात -युद्ध करने की अपेक्षा; श्रेयः -श्रेष्ट साधन; अन्यत -कोई दूसरा; क्षत्रियस्य-क्षत्रिय का; न- नहीं; विद्द्ते-है। 

क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म  के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है। अतः तुम्हें संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

अर्थात :-सामाजिक व्यवस्था के चार वर्णों में द्वितीय वर्ण उत्तम शासन  के लिए है और क्षत्रिय कहलाता है। क्षत का अर्थ है चोट खाया हुआ। जो क्षति से रक्षा करे वह क्षत्रिय कहलाता है। क्षत्रियों को वन में आखेट करने का प्रशिक्षण दिया जाता। क्षत्रिय जंगल में जाकर शेर को ललकारता और उससे आमने -सामने अपनी तलवार से लड़ता था। शेर की मृत्यु होने पर उसकी राजसी ढंग से अंत्येष्टि की जाती थी। आज भी जयपुर रियासत के क्षत्रिय राजा इस प्रथा का पालन करते हैं। क्षत्रियों को विशेष रूप से ललकारने तथा  शिक्षा दी जाती है क्योंकि कभी-कभी धार्मिक हिंसा अनिवार्य होती है। इसलिए क्षत्रियों को सीधे सन्यासाश्रम ग्रहण का विधान नहीं है। राजनीति में अहिंशा कूटनीतिक चाल हो सकती है,किन्तु यह कभी भी कारण या सिद्धांत नहीं रही। धार्मिक संहिताओं में उल्लेख मिलता है -

आवहेषु मिथोन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः। 

युद्धमानाः परं शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्गमुखाः।। 

यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन हन्यन्ते सततं द्विजैः। 

संस्कृताः किल  मन्त्रैश्च तेपि स्वर्गमाप्नुवन।।  

"युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मृत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक प्राप्त होते हैं जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गए पशुओं की होती है।"अतः धर्म के लिए युद्ध भूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें नहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है और यज्ञ में बलि दिए गए पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकाश  प्रक्रिया के ही तुरंत मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है। इसी तरह  युद्धभूमि में मारे गए  क्षत्रिय यज्ञ संपन्न करने वाले ब्राह्मणों को प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक में जाते हैं।  

स्वधर्म दो प्रकार का होता है जब। जब तक मनुष्य मुक्त नहीं हो जाता  तब तक मुक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म के अनुसार शरीर विशेष कर्तव्य करने होते हैं। जब वह मुक्त हो जाता है तो उसका विशेष कर्तव्य या स्वधर्म आध्यात्मिक हो जाता है और देहात्मबुद्धि में नहीं रहता। जब तक देहात्मबुद्धि है तब तक ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के लिए स्वधर्म पालन अनिवार्य होता है। स्वधर्म का का विधान भगवान् द्वारा होता है,जिसका स्पष्टीकरण चतुर्थ अध्याय में किया जाएगा। शारीरिक स्तर पर स्वधर्म को वर्णाश्रम धर्म अथवा आध्यात्मिक बोध का प्रथम सोपान कहते हैं। वर्णाश्रम धर्म अर्थात प्राप्त शरीर के विशिष्ट गुणों पर आधारित स्वधर्म की अवस्था से मानवीय सभ्यता का शुभारम्भ होता है। वर्णाश्रम -धर्म के अनुसार किसी कार्य-क्षेत्र में स्वधर्म का निर्वाह करने से जीवन के उच्चतर पद को प्राप्त किय जाता है। 

क्रमशः - !!!!

  

बुधवार, 3 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:30

🙏 

देहि नित्यमवध्योयं देहे सर्वस्य भारत। 

तस्मातसर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।३०।।

🙏


  देहि -भौतिक शरीर का स्वामी; नित्यम -शाश्वत,अवध्य -मारा नहीं जा सकता; आयम -यह आत्मा; देहे -शरीर में; सर्वस्य -हर एक के; भारत-हे भरतवंशी; तस्मात् -अतः; सर्वाणी -समस्त; भूतानि -जीवों (जन्म लेने वालों )को; न -कभी नहीं; त्वम् -तुम; शोचितुम -शोक करने के लिए; अर्हसि -योग्य हो। 

हे भरतवंशी ! शरीर में रहने वाले (देहि )का कभी भी वध नहीं किया जा सकता अतः तुम्हे किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।

तात्पर्य :- अब भगवान्  अविकारी आत्मा विषयक अपना उपदेश समाप्त कर रहे हैं। अमर आत्मा का अनेक प्रकार से वर्णन करते हुए भगवान् कृष्ण ने आत्मा को अमर तथा शरीर को नाशवान सिद्ध किया है। अतः क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन को इस भय से की युद्ध में उसके पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोण मर जायेंगे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। कृष्ण को प्रमाण मानकर भौतिक देह से भिन्न आत्मा का पृथक अस्तित्व स्वीकार करना ही होगा,यह नहीं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं है या कि जीवन के लक्षण रसायनों की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप एक विशेष अवस्था में प्रकट होते हैं। यद्धपि आत्मा अमर है,किन्तु इससे हिंसा को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। फिर भी युद्ध के समय हिंसा का निषेध नहीं किया जाता क्योंकि तब इसकी आवश्यकता नहीं रहती। ऐसी आवश्यकता को भगवान् की आज्ञा के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है,स्वेच्छा से नहीं। 

क्रमशः !!!

मंगलवार, 2 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन 

              माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। 

आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति 

              श्रुत्वाप्येनं वेद  चैव कश्चित्।।२९।। 

आश्चर्यवत-आश्चर्य की तरह; पश्यति -देखता है; कश्चित्-कोई; एनम -इस आत्मा को;आश्चर्य वत -आश्चर्य की तरह; वदति- कहता है; तथा -जिस प्रकार; एव-निश्चय ही; च -भी; अन्य -दूसरा; आश्चर्यवत -आश्चर्य से; च -और; एनम -इस आत्मा को;अन्य -दूसरा; शृणोति -सुनता है; श्रुत्वा -सुनकर; अपि -भी;एनम-इस आत्मा को;वेद जानता है;न -कभी नहीं; च -तथा; एव- निश्चय ही; कश्चित् -कोई। 

कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है,कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है,किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते। 

तात्पर्य :- चूँकि गीतोपनिषद उपनिषदों के सिद्धांत पर आधारित है अतः कठोपनिषद में (१.२.७ )इस श्लोक में होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है -

श्रवणयापी  बहुभिर्यो  न लभ्यः श्रणवन्तोपि  बहवो याम न विदुः। 

आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धा  आश्चर्योस्य ज्ञाता कुषलानुशिष्टः।। 

विशाल पशु ,विशाल वट वृक्ष तथा एक इंच स्थान में लाखों करोड़ों की संख्या में  उपस्थित सूक्ष्म कीटाणुओं  के भीतर अणु। आत्मा की उपस्थिति  निश्चित रूप से आश्चर्यजनक है। अल्पज्ञ तथा दुराचारी व्यक्ति अणु आत्मा के स्फुलिंग  के चमत्कारोंको नहीं समझ पाता, भले ही उसे बड़े से बड़ा ज्ञानी ,जिसने विश्व के प्रथम प्राणी ब्रह्मा को भी शिक्षा दी हो ,क्यों न समझाएं। वस्तुओं के स्थूल भौतिक बोध के कारण इस युग के अधिकांश व्यक्ति इसकी कल्पना नहीं कर सकते कि इतना सूक्ष्म कण किस प्रकार इतना विराट तथा लघु बन सकता है अतः लोग आत्मा को उसकी संरचना या उसके विवरण के आधार पर ही आश्चर्य देखते हैं। इन्द्रियतृप्ति की बातों में फंस कर लोग भौतिक शक्ति ( माया )से इस तह मोहित होते हैं की उनके पास आत्मज्ञान समझने का अवसर ही नहीं रहता यद्धपि यह तथ्य है कि आत्मज्ञान के बिना  सारे कार्यों का दुष्परिणाम जीवन-संघर्ष में पराजय के रूप में होता है। सम्भवतः उन्हें इसका  कोई अनुमान नहीं होता कि मनुष्य को आत्मा के विषय में चिंतन करना चाहिए और दुखों का हल खोज निकलना चाहिए। 

ऐसे थोड़े से लोग, जो आत्मा के सुनने के विषय में सुनने के इच्छुक हैं ,अच्छी संगति पाकर भाषण सुनते हैं ,किन्तु कभी -कभी अज्ञानवश वे परमात्मा तथा अणु -आत्मा को एक समझ बैठते हैं। ऐसा व्यक्ति खोज पाना कठिन है ,जो परमात्मा अणु -आत्मा,उनके पृथक-पृथक कार्यों तथा संबंधों एवं अन्य विस्तारों को सही ढंग से समझ सके। इससे अधिक कठिन है ऐसा व्यक्ति खोज पाना जिसने आत्मा के ज्ञान से पूरा -पूरा लाभ उठाया हो और जो सभी पक्षों से आत्मा की स्थति का सही -सही निर्धारण कर सके। किन्तु यदि कोई किसी तरह से आत्मा के इस विषय को समझ लेता है तो उसका जीवन सफल हो जाता है। 

इस आत्म -ज्ञान को समझने का सरलतम उपाय यह है की अन्य मतों से विचलित हुए बिना परम प्रमाण भगवान् कृष्ण द्वारा कथित भगवतगीता के उपदेशों को ग्रहण कर लिया जाय। किन्तु इसके लिए भी इस जन्म में या पिछले जन्मों में प्रचुर तपस्या की आवश्यकता होती है,तभी कृष्ण को  श्री भगवान् के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। पर कृष्ण को इस रूप में जानना शुद्ध भक्तों की अहैतुकी कृपा से ही होता है,अन्य किसी उपाय से नहीं। 

क्रमशः !!!!

सोमवार, 1 मार्च 2021

BHAGAVAD GITA 2:28

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि। 

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।। 

अव्यक्त -आदीनी-प्रारम्भ में अप्रकट; भूतानि - सारे प्राणी; व्यक्त-प्रकट; मध्यानी -मध्य में; भारत-हे भरतवंशी; अव्यक्त-अप्रकट;निधनानी-विनाश होने पर; एव-इस तरह से;तत्र-अतः; का-क्या; परिवेदना -शोक। 

सारे जीव प्रारम्भ अव्यक्त रहते हैं,मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है ?

तात्पर्य :- यह स्वीकार करते हुए दो प्रकार के दार्शनिक हैं। एक तो वे जो आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं,और दूसरे वे जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते,कहा जा सकता है कि किसी भी दशा में शोक करने का कोई कारण नहीं है। आत्मा के अस्तित्व को न मानने वालों को वेदान्तवादी नास्तिक कहते। यदि हम तर्क के लिए इस नास्तिकतावादी को भी मान लें तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है। आत्मा के पृथक अस्तित्व से भिन्न सारे भौतिक तत्व सृष्टि के पूर्व अदृश्य रहते हैं। इस अदृश्य रहने की सूक्ष्म अवस्था से ही दृश्य अवस्था आती है,जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है,वायु से अग्नि,अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। पृथ्वी से अनेक प्रकार के पदार्थ प्रकट होते हैं -यथा एक विशाल गगनचुंभी महल पृथ्वी से ही प्रकट हैं। जब इसे ध्वस्त किया जाता है,तो वह अदृश्य हो जाता है,और अंततः परमाणु में बना रहता है। शक्ति सरंक्षण का नियम बना रहता है, किन्तु कालकर्म से वस्तुएं प्रकट तथा अप्रकट होती रहती-अंतर इतना ही है। अतः प्रकट (व्यक्त)या अप्रकट (अव्यक्त)होने पर शोक करने का कोई कारण  नहीं है। यहाँ तक कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुएं समाप्त नहीं होती। प्रारम्भिक तथा अंतिम दोनों अवस्थाओं में ही सारे तत्व अप्रकट रहते हैं,केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं और इस तरह इससे वास्तविक अंतर नहीं पड़ता। 

यदि हम भगवद्गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं की ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं (अंतवत इमे देहा) किन्तु आत्मा शाश्वत है (नित्योक्ताः शरीरिणः) तो हमें यह सदा स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान )के समान है। स्वप्न में हम आकाश में उड़ते या राजा की भांति रथ पर आरूढ़ हो सकते हैं,किन्तु जागने पर देखते है कि न तो हम आकाश में हैं,न रथ पर। वैदिक ज्ञान आत्मसाक्षात्कार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है। अतः चाहे हम आत्मा को अस्तित्व को मानें या न मानें,शरीर नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है। 

क्रमशः!!!      

रविवार, 28 फ़रवरी 2021

BHAGAVAD GITA 2:27

🙏

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। 

        तस्मादपरिहार्येर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।🙏 

 जातस्य - वाले की; हि-निश्चय ही; ध्रुव:-तथ्य है; मृत्यु:-मृत्यु; जन्म -जन्म;मृतस्य -मृत प्राणी का; च -भी; तस्मात्-अतः; अपरिहार्ये -जिससे बचा न सके,उसका; अर्थे -के विषय में; न -नहीं; त्वम् -तुम; शोचितुम -शोक करने लिए; अर्हसि-योग्य हो। 

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं  चाहिए।

तत्पर्य :- मनुष्य को  कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म -अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है,जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जन्म मरण के इस चक्र से वृथा हत्या,वध  युद्ध का समर्थन नहीं होता किन्तु मानव समाज में शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य है। 

कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः  कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु भयभीत या शोकाकुल क्यों था ?यह विधि (कानून )को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर  उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यंत भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह  कर्तव्य -पथ  चुनाव करे,तो उसे नीचे गिरना होगा।

क्रमशः !!!   

 


 

Most Powerful Biography of Dr APJ Abdul Kalam | Watch Full Video Withou...