आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद चैव कश्चित्।।२९।।
आश्चर्यवत-आश्चर्य की तरह; पश्यति -देखता है; कश्चित्-कोई; एनम -इस आत्मा को;आश्चर्य वत -आश्चर्य की तरह; वदति- कहता है; तथा -जिस प्रकार; एव-निश्चय ही; च -भी; अन्य -दूसरा; आश्चर्यवत -आश्चर्य से; च -और; एनम -इस आत्मा को;अन्य -दूसरा; शृणोति -सुनता है; श्रुत्वा -सुनकर; अपि -भी;एनम-इस आत्मा को;वेद जानता है;न -कभी नहीं; च -तथा; एव- निश्चय ही; कश्चित् -कोई।
कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है,कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है,किन्तु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते।
तात्पर्य :- चूँकि गीतोपनिषद उपनिषदों के सिद्धांत पर आधारित है अतः कठोपनिषद में (१.२.७ )इस श्लोक में होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है -
श्रवणयापी बहुभिर्यो न लभ्यः श्रणवन्तोपि बहवो याम न विदुः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धा आश्चर्योस्य ज्ञाता कुषलानुशिष्टः।।
विशाल पशु ,विशाल वट वृक्ष तथा एक इंच स्थान में लाखों करोड़ों की संख्या में उपस्थित सूक्ष्म कीटाणुओं के भीतर अणु। आत्मा की उपस्थिति निश्चित रूप से आश्चर्यजनक है। अल्पज्ञ तथा दुराचारी व्यक्ति अणु आत्मा के स्फुलिंग के चमत्कारोंको नहीं समझ पाता, भले ही उसे बड़े से बड़ा ज्ञानी ,जिसने विश्व के प्रथम प्राणी ब्रह्मा को भी शिक्षा दी हो ,क्यों न समझाएं। वस्तुओं के स्थूल भौतिक बोध के कारण इस युग के अधिकांश व्यक्ति इसकी कल्पना नहीं कर सकते कि इतना सूक्ष्म कण किस प्रकार इतना विराट तथा लघु बन सकता है अतः लोग आत्मा को उसकी संरचना या उसके विवरण के आधार पर ही आश्चर्य देखते हैं। इन्द्रियतृप्ति की बातों में फंस कर लोग भौतिक शक्ति ( माया )से इस तह मोहित होते हैं की उनके पास आत्मज्ञान समझने का अवसर ही नहीं रहता यद्धपि यह तथ्य है कि आत्मज्ञान के बिना सारे कार्यों का दुष्परिणाम जीवन-संघर्ष में पराजय के रूप में होता है। सम्भवतः उन्हें इसका कोई अनुमान नहीं होता कि मनुष्य को आत्मा के विषय में चिंतन करना चाहिए और दुखों का हल खोज निकलना चाहिए।
ऐसे थोड़े से लोग, जो आत्मा के सुनने के विषय में सुनने के इच्छुक हैं ,अच्छी संगति पाकर भाषण सुनते हैं ,किन्तु कभी -कभी अज्ञानवश वे परमात्मा तथा अणु -आत्मा को एक समझ बैठते हैं। ऐसा व्यक्ति खोज पाना कठिन है ,जो परमात्मा अणु -आत्मा,उनके पृथक-पृथक कार्यों तथा संबंधों एवं अन्य विस्तारों को सही ढंग से समझ सके। इससे अधिक कठिन है ऐसा व्यक्ति खोज पाना जिसने आत्मा के ज्ञान से पूरा -पूरा लाभ उठाया हो और जो सभी पक्षों से आत्मा की स्थति का सही -सही निर्धारण कर सके। किन्तु यदि कोई किसी तरह से आत्मा के इस विषय को समझ लेता है तो उसका जीवन सफल हो जाता है।
इस आत्म -ज्ञान को समझने का सरलतम उपाय यह है की अन्य मतों से विचलित हुए बिना परम प्रमाण भगवान् कृष्ण द्वारा कथित भगवतगीता के उपदेशों को ग्रहण कर लिया जाय। किन्तु इसके लिए भी इस जन्म में या पिछले जन्मों में प्रचुर तपस्या की आवश्यकता होती है,तभी कृष्ण को श्री भगवान् के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। पर कृष्ण को इस रूप में जानना शुद्ध भक्तों की अहैतुकी कृपा से ही होता है,अन्य किसी उपाय से नहीं।
क्रमशः !!!!
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।
अव्यक्त -आदीनी-प्रारम्भ में अप्रकट; भूतानि - सारे प्राणी; व्यक्त-प्रकट; मध्यानी -मध्य में; भारत-हे भरतवंशी; अव्यक्त-अप्रकट;निधनानी-विनाश होने पर; एव-इस तरह से;तत्र-अतः; का-क्या; परिवेदना -शोक।
सारे जीव प्रारम्भ अव्यक्त रहते हैं,मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है ?
तात्पर्य :- यह स्वीकार करते हुए दो प्रकार के दार्शनिक हैं। एक तो वे जो आत्मा के अस्तित्व को मानते हैं,और दूसरे वे जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते,कहा जा सकता है कि किसी भी दशा में शोक करने का कोई कारण नहीं है। आत्मा के अस्तित्व को न मानने वालों को वेदान्तवादी नास्तिक कहते। यदि हम तर्क के लिए इस नास्तिकतावादी को भी मान लें तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है। आत्मा के पृथक अस्तित्व से भिन्न सारे भौतिक तत्व सृष्टि के पूर्व अदृश्य रहते हैं। इस अदृश्य रहने की सूक्ष्म अवस्था से ही दृश्य अवस्था आती है,जिस प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है,वायु से अग्नि,अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। पृथ्वी से अनेक प्रकार के पदार्थ प्रकट होते हैं -यथा एक विशाल गगनचुंभी महल पृथ्वी से ही प्रकट हैं। जब इसे ध्वस्त किया जाता है,तो वह अदृश्य हो जाता है,और अंततः परमाणु में बना रहता है। शक्ति सरंक्षण का नियम बना रहता है, किन्तु कालकर्म से वस्तुएं प्रकट तथा अप्रकट होती रहती-अंतर इतना ही है। अतः प्रकट (व्यक्त)या अप्रकट (अव्यक्त)होने पर शोक करने का कोई कारण नहीं है। यहाँ तक कि अप्रकट अवस्था में भी वस्तुएं समाप्त नहीं होती। प्रारम्भिक तथा अंतिम दोनों अवस्थाओं में ही सारे तत्व अप्रकट रहते हैं,केवल मध्य में वे प्रकट होते हैं और इस तरह इससे वास्तविक अंतर नहीं पड़ता।
यदि हम भगवद्गीता के इस वैदिक निष्कर्ष को मानते हैं की ये भौतिक शरीर कालक्रम में नाशवान हैं (अंतवत इमे देहा) किन्तु आत्मा शाश्वत है (नित्योक्ताः शरीरिणः) तो हमें यह सदा स्मरण रखना होगा कि यह शरीर वस्त्र (परिधान )के समान है। स्वप्न में हम आकाश में उड़ते या राजा की भांति रथ पर आरूढ़ हो सकते हैं,किन्तु जागने पर देखते है कि न तो हम आकाश में हैं,न रथ पर। वैदिक ज्ञान आत्मसाक्षात्कार को भौतिक शरीर के अनस्तित्व के आधार पर प्रोत्साहन देता है। अतः चाहे हम आत्मा को अस्तित्व को मानें या न मानें,शरीर नाश के लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है।
क्रमशः!!!
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जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।🙏
जातस्य - वाले की; हि-निश्चय ही; ध्रुव:-तथ्य है; मृत्यु:-मृत्यु; जन्म -जन्म;मृतस्य -मृत प्राणी का; च -भी; तस्मात्-अतः; अपरिहार्ये -जिससे बचा न सके,उसका; अर्थे -के विषय में; न -नहीं; त्वम् -तुम; शोचितुम -शोक करने लिए; अर्हसि-योग्य हो।
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं चाहिए।
तत्पर्य :- मनुष्य को कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म -अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है,जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जन्म मरण के इस चक्र से वृथा हत्या,वध युद्ध का समर्थन नहीं होता किन्तु मानव समाज में शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य है।
कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु भयभीत या शोकाकुल क्यों था ?यह विधि (कानून )को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यंत भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह कर्तव्य -पथ चुनाव करे,तो उसे नीचे गिरना होगा।
क्रमशः !!!
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम।
तथापि त्वं महाबाहो नैनं शोचितुमर्हसि।।२६।।
अथ:-यदि,फिर भी, च-भी; एनम -इस आत्मा को; नित्य -जातम-उत्पन्न होने वाला; नित्यम-सदैव के लिए; वा-अथवा; मन्यसे-तुम ऐसा सोचते हो; मृतम-मृत;तथा अपि-फिर भी; त्वम्- तुम भी;महा -बाहो-हे शूरवीर; न -कभी नहीं; एनम-आत्मा के विषय में; शोचितुम -शोक करने के लिए; अर्हसि-योग्य हो।
किन्तु यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण )सदा जन्म लेता तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु !तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है।
तत्पर्य :- सदा से दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग चला आ रहा है,जो बौद्धों के ही समान यह नहीं मानता कि शरीर के परे भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब भगवान् कृष्ण ने भगवदगीता का उपदेश दिया तो ऐसे दार्शनिक विद्दमान थे और लोकायतिक तथा वैभाषिक नाम से जाने जाते थे। ऐसे दार्शनिकों का मत है कि जीवन के लक्षण भौतिक संयोग की एक परिपक्वावस्था में ही घटित होते हैं। आधुनिक भौतिक विज्ञानी तथा भौतिक वादी दार्शनिक भी ऐसा ही सोचते हैं। उनके अनुसार शरीर भौतिक तत्वों का संयोग है और एक अवस्था ऐसी आती है जब भौतिक तथा रासायनिक तत्वों के संयोग से जीवन के लक्षण विकसित हो उठते हैं। नृतत्व विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। सम्प्रति अनेक छद्म धर्म-जिनका अमेरिका में प्रचार हो रहा है -इसी दर्शन का पालन करते हैं और साथ ही शून्यवादी अभक्त बौद्धों का अनुसरण करते हैं।
यदि अर्जुन को आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं था, जैसा कि वैभाषिक दर्शन में होता है तो भी उसके शोक करने का कोई कारण न था। कोई भी मानव थोड़े से रसायनो की क्षति के लिए शोक नहीं करता तथा अपना कर्तब्यपालन नहीं त्याग देता है। दूसरीओर, आधुनिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए न जाने कितने टन रसायन फूँक देते हैं। वैभाषिक दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर के क्षय होते ही लुप्त हो जाता है।
अतः प्रत्येक दशा अर्जुन इस वैदिक मान्यता को स्वीकार करता कि अणु आत्मा का अस्तित्व को स्वीकार करता,उसके लिए शोक करने का कोई कारण नहीं था इस सिद्धांत के अनुसार चूँकि पदार्थ से प्रत्येक क्षण असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं,अतः ऐसी घटनाओं के लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता तो अर्जुन को अपने पितामह तथा गुरु के वध करने के पापफलों से डरने का कोई कारण न था। किन्तु साथ ही कृष्ण ने अर्जुन को व्यंग्यपूर्वक महाबाहु कहकर सम्बोधित किया क्योंकि उसे वैभाषिक सिद्धांत स्वीकार नहीं था,जो वैदिक ज्ञान के प्रतिकूल है। क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से था और वैदिक सिद्धांतों का पालन करते रहना ही उसके लिए शोभनीय था।
क्रमशः !!!
🙏🙏अव्यक्तो यमचिन्त्यो यमविकार्यो यमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैन नानुशोचितुमर्हसि।।२५।।🙏🙏
अव्यक्त -अदृश्य; अयम-यह आत्मा; अचिन्त्य:-अकल्पनीय; अयम-यह आत्मा; अविकार्य-अपरिवर्तित; अयम-यह आत्मा; उच्यते-कहलाता है;तस्मात्-अतः;एवम -इस प्रकार; विदित्वा-अच्छी तरह जानकर; एनम-इस आत्मा के विषय में;न-नहीं; अनुशोचितम-शोक करने के लिए; अर्हसि-योग्य हो।
यह आत्मा अव्यक्त,अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है। यह जानकार तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए।
तात्पर्य :- जैसा कि पहले कहा जा चुका है,आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे सर्वाधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं देखा जा सकता,अतः यह अदृश्य है। जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व का सम्बन्ध है,श्रुति के प्रमाण के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोग द्वारा इसके अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। हमें इस सत्य को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि अनुभवगम्य सत्य होते हुए भी आत्मा के अस्तित्व को समझने के लिए कोई अन्य साधन नहीं है। हमें अनेक बातें केवल उच्च प्रमाणों के आधार पर माननी पड़ती है। कोई भी अपनी माता के आधार पर अपने पिता के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकता। पिता के स्वरूप को जानने का साधन एकमात्र प्रमाण माता है। इसी प्रकार वेदाध्ययन के अतिरिक्त आत्मा को समझने का अन्य उपाय नहीं है। दूसरे शब्दों में,आत्मा मानवीय व्यावहारिक ज्ञान द्वारा अकल्पनीय है। आत्मा चेतना और चेतन है -वेदों के इस कथन को हमें स्वीकार करना होगा। आत्मा में शरीर जैसे परिवर्तन नहीं होते। मूलतः अविकारी रहते हुए आत्मा अनन्त परमात्मा की तुलना में अणु -रूप है। परमात्मा अनन्त है और अणु -आत्मा अति सूक्ष्म है। अतः अति सूक्ष्म आत्मा अविकारी होने के कारण अनन्त आत्मा भगवान् के तुल्य नहीं हो सकता। यही भाव वेदों में भिन्न -भिन्न प्रकार से आत्मा के स्थायित्व की पुष्टि करने के लिए दुहराया गया है। किसी बात का दुहराना उस तथ्य को बिना किसी त्रुटि के समझने के लिए आवश्यक है।
क्रमशः !!! 🙏🙏
अच्छेद्योयमदहोयमक्लेद्यो शोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः।।२४।।
अच्छेद्य:-न टूटने वाला; अयम-यह आत्मा; अदाह्यः -न जलाया जा सकने वाला; अयम -यह आत्मा; अक्लेद्य:-अघुलनशील; अशोष्य-न सुखाया सकने वाला; एव-निश्चय ही; च -तथा; नित्य:-शाश्वत; सर्व-गत:-सर्वव्यापी; स्थाणु -अपरिवर्तनीय,अविकारी; अचल:-जड़; अयम-यह आत्मा; सनातनः सदैव एक सा।
यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है। इसे न तो जलाया जा सकता है,न ही सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत,सर्वव्यापी,अविकारी,स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है।
तात्पर्य :- अणु -आत्मा के इतने सारे गुण यही सिद्ध करते हैं कि आत्मा पूर्ण आत्मा का अणु -अंश है और बिना किसी परिवर्तन के निरन्तर उसी तरह बना रहता है। इस प्रसंग में अद्वैतवाद को व्यवहृत करना कठिन है क्योंकि अणु आत्मा कभी भी परम -आत्मा के साथ मिलकर एक नहीं हो सकता। भौतिक कल्मष से होकर अणु -आत्मा भगवान् के तेज की किरणों की आध्यात्मिक स्फुलिंग बनकर रहना चाह सकता है,किन्तु बुद्धिमान जीव तो भगवान् की संगति के लिए वैकुण्ठलोक में प्रवेश करता है।
सर्वगत शब्द महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई संशय नहीं है जीव भगवान् की समग्र सृष्टि में फैले हुए हैं। वे जल,थल,वायु,पृथ्वी के भीतर तथा अग्नि के भीतर भी रहते हैं। जो यह मानते हैं कि वे अग्नि में स्वाहा हो जाते हैं.वह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि आत्मा को अग्नि द्वारा जलाया नहीं जा सकता। अतः इसमें संदेह नहीं कि सूर्यलोक में भी उपयुक्त प्राणी निवास करते हैं। यदि सूर्यलोक निर्जन हो तो सर्वगत शब्द निरर्थक हो जाता है।
क्रमशः !!! 🙏🙏